By Harishankar Vyas , Chief Editor,NAYA INDIA
मन को बांधने, संतोष देने वाली एक फिल्म देखी। ऐसी फिल्म जिससे 30-35 साल पुराना प्रिंट मीडिया याद हो आया। याद करने लगा तब के संपादक, रिपोर्टर, अखबार मालिक के चेहरे-मोहरों को और आज….। पत्रकारिता तब
गांभीर्य, लगन, मेहनत और सत्य के धुनी अच्छे लोगों को अपने से जैसे बांधे रखती थी वह आज डिजिटल, आनलाईन मीडिया के जमाने में भला कहा है? मुझे फिल्म देख कर सुकून हुआ कि कितने अच्छे पेशे में मैंने अपना जीवन जीया है।
कोई माने या न माने अपना मानना है कि पत्रकारिता की बुनियादी बात सच्चाई में खपे रहना है। अब सच्चाई, सत्य की खोज भले रिपोर्टर की भागदौड़ से हो या ब्यूरो चीफ की अपनी टीम से खबर खोजवा लेने की धुन से या संपादक की निडर लीडरशीप और समझ से हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्रकार वह है, पत्रकारिता वह है जिसके मन में, कोर में यह छटपटाहट हो कि हकीकत खोजने, जांचने, बताने में न चूक होनी चाहिए और न हिचक।
अब यह बात भारत की पत्रकारिता के संबंध में सौ टका तब भी सही नहीं थी जब समाचारपत्रों याकि प्रिंट मीडिया का जलवा था। आज तो खैर सवाल ही नहीं उठता। इन बातों में अपना पैमाना अमेरिका, ब्रिटेन याकि सचमुच विकसित, लोकतांत्रिक व सभ्य समाजों का है। हम जैसे बाकि तमाम मामलों में अधकचरे हंै, वैसे पत्रकारिता में भी थे और है फिर भले वक्त प्रिंट मीडिया का हो, टीवी मीडिया का हो या डिजिटल का।
बहरहाल, मैं भटक रहा हूं। दो-तीन बार पहले भी मैं फिल्म देखने के बाद उस पर लिखने से अपने को रोक नहीं पाया। वहीं ‘स्पॉटलाइट’ को देख कर हुआ। उसे देख भभका आया और लिखने बैठ गया। पहला निष्कर्ष यह बना कि पत्रकारिता के पेशे की गौरवपूर्ण अनुभूति करवाने वाली क्या गजब फिल्म है यह। कितना अच्छा है जो मैं ऐसे पेशे में हूं जिसमें सच्चाई की फितरत में कैसी–कैसी कहानियां बनती है, काम होते हैं। ऐसे काम जिससे देश सुधरते हैं, व्यवस्था जवाबदेह बनती है। शोषण,दमन रूकता है और महाबली राक्षस प्रवृतियां सुधरने को मजबूर होती है।
फिल्म सचमुच की खोजी खबर की रिपोर्टिंग के एक कथानक को लिए हुए है। अमेरिका के बोस्टन शहर के ‘बोस्टन ग्लोब’ अखबार ने 2002 में केथौलिक चर्च के पादरियों द्वारा बाल यौन शौषण किए जाने की हकीकत को दुनिया के आगे बयां किया था। बोस्टन शहर कैथोलिक गढ़ रहा है। वहां पादरियों की छोटी खबर की पड़ताल करते-करते ऐसी बड़ी खबर बनी कि बाद में केथौलिक चर्च के मुख्यालय वेटिकन तक आंच पहुंची। बोस्टन ग्लोब की शहर विशेष की पड़ताल ने ऐसा पटारा खोला जिससे केथौलिक चर्च की वैश्विक बदनामी हुई।
फिल्म की खूबी है कि सच्ची कहानी को सच्चे, विश्वसनीय ऐसे अंदाज में सुनाया, दिखाया गया जैसे मानों रिपोर्टर, संपादक याकि अखबार के असली दफ्तर के बीच में आप भी याकि दर्शक भी बैठे हो। काम होता महसूस कर रहे हो। कोई सनसनी नहीं। कोई तड़क-भड़क नहीं। संपादक, रिपोर्टर अपने को न तुर्रमखां माने हुए और न ऐसा दिखाते हुए। संभव है आपने हिंदी की जेसिका लाल वाली फिल्म देखी हो। उस देशी फिल्म में रिपोर्टर को जैसे तू तूड़ाका, गाली बकते, सूरमाई दिखलाया गया, वैसा तनिक भी बोस्टन ग्लोब के अखबारी माहौल में नहीं झलकेगा। वहा सब सहज, सामान्य पत्रकार मिलेंगे लेकिन इरादे व समझ के पक्के।
मैं क्या बताऊं! फिल्म में अखबार के माहौल का जो नेसर्गिक सच्चापन, अपनापन अनुभूत हुआ वहीं पत्रकारिकता का कोर है, इसे मैंने बहुत गहराई से महसूस किया और उसके ग्रीप, घटनाक्रम प्रवाह में बंधे बहा रहा। डायरेक्टर टॉम मेक्कार्थी की मैंने पहले कोई फिल्म नहीं देखी है। इस अभिनेता-निर्देशक की फिल्मे ज्यादा नहीं है। पर अपना मानना है कि मेक्कार्थी ने ‘स्पॉटलाइट’ को जैसे बनाया है वह अपने पसंदीदा रिडले स्कॉट के मुकाबले कोई उन्नीस नहीं है।
फिल्म की खूबी यह कि शुरू से ही पता है कि कहानी का अंत क्या होगा। बाल यौन शौषण में चर्च के पादरियों की लिप्तता का कथानक खुला हुआ है पर स्टोरी को निकालने के लिए एक –एक तथ्य, उसके तमाम पहलूओं, सूचनाओं को एकत्र करने के लिए लोगों से मिलने, चौतरफा बात करने, भागदौड़ करने, नोट्स लेने, बात निकलवाने से ले कर दबाव झेलने का जैसे जो घटनाक्रम चला है उससे अंत में यह वाह अपने आप निकलेगी कि इसे कहते है पत्रकारिता! पत्रकारिता के मूल्य, पत्रकारिता का अर्थ और उसमें राग-द्वेष से परे आठ महीने की लंबी खोजबीन की रिपोर्टिंग का अंत जब होता है तो वाह क्या खूब! केथौलिक चर्च का भंडाफोड़ करती रपट लिए ‘बोस्टन ग्लोब’ अखबार जब स्टॉल पहुंचता है तब उन पत्रकारों को अहसास होता है कि उन्होने क्या खूब गजब किया। उनके किए से दुनिया भर में चर्च के यौन शौषण मामले खुले। व्यवस्था बदली।
बावजूद इस सबके संपादक या रिपोर्टर व्यवस्था को बदलने का गुमान, घमंड पाले हुए नहीं थे। वे सिर्फ काम कर रहे थे। काम की एकाग्रता में थे। पत्रकार सिर्फ और सिर्फ इस पत्रकारीय मिशन स्टेटमेंट में रमे हुए थे कि उनका मतलब सच्चाई से है। फिल्म में बोस्टन का चर्च कार्डिनल ‘बोस्टन ग्लोब’ के संपादक को सीख देते हुए कहता है – शहर तब समद्व होते है जब उसके महान संस्थान मिलकर काम करते है। संपादक मार्टिन बॉरोन ने इसका प्रतिवाद किया। धीमे से, सहजता से असहमति जताते हुए कहा- पर मेरा मानना है अखबार को तो अकेले रहना चाहिए! सबसे अलग!
हम और आप देखते है, देखते रहे है कि मिल कर साथ चलने, संस्थाओं की मिलीभगत में कितनी और कैसी गड़बडि़यां होती है। अखबार को, मीडिया संस्थान को सचमुच अकेले ही होना चाहिए। अकेले रहना चाहिए। ‘बोस्टन ग्लोब’ का धीर-गंभीर संपादक, खोजी स्पॉटलाइट टीम का चीफ और उसके रिपोर्टर सभी के चरित्रों को अभिनेताओं ने जिस बेखूबी से यर्थाथता में उतारा उसमें सत्व-तत्व यही है कि सबकुछ सच्चा लगा। अमेरिका में अखबार के जैसे दफ्तर होते है उसी माहौल में फिल्म फिल्माई गई। लकदक, हाईफाई विजुअल नहीं और न ही भाषणबाजी या बड़बोलापन!
अपनी पुरानी थीसिस है कि कहानी कहने में हॉलीवुड का जवाब नहीं है। अमेरिकी सभ्यता जैसे दूसरे मामलों में सिरमौर और लाजवाब है वैसे ही कहानी कहने में, फिल्म कला में भी अमेरिका उत्कृष्टतम है और उसकी बेहतरी का क्षेत्र पत्रकारिता भी है। पत्रकारिता को लेकर ह़ॉलीवुड में पहले भी कई फिल्मे बनी है। ऑल द प्रसीडेंटमेन से लेकर न्यूजरूम के टीवी सीरियल की ढेरों कहानियां है। पर अपना मानना है कि पत्रकारिता के सच्चे, विश्वसनीय रूप की सच्ची, बेमिसाल फिल्म ‘स्पॉटलाइट’ है।
सो यदि पत्रकारिता से नाता है, दिलचस्पी है, उसे जानना-समझना है तो ‘स्पॉटलाइट’ अवश्य देंखे।
और हां, बोस्टन ग्लोब से एक यह विचार भी आया है कि दुनिया का हर बडा अखबार कोई न कोई बडी कहानी जरूर लिए हुए होगा। वाशिंगटन, लंदन, पेरिस, टोक्यों, दिल्ली,मुंबई के अखबारों का इतिहास असंख्य कहानियां लिए हुए है। कहानियों के इन संस्थानों, रिपोर्टिंग रूम और अखबारों को यों अब डिजिटल क्रांति की नजर लग गई है बावजूद इसके सच्ची कहानियां, देश-दुनिया, व्यवस्था को बदलने को मजबूर करती कहानियां इस पत्रकारिता के पेशे में ही है।
क्या नहीं?
पुनश्चः कैथोलिक चर्च में बाल यौन शौषण का जो विकराल, विशाल रूप सामने आया और उसे दबाने के लिए व्यवस्था के तानेबाने का जो साझा दिखा वह इस बात का प्रमाण है कि संगठित धर्म दुराचार में ज्यादा भयावह है। अपने असंगठित हिंदू धर्म के बाबाओं, आसारामों पर क्या रोना!
आजादी आई और मीडिया अपंग!
फिल्म ‘स्पॉटलाइट’ देख पत्रकारिता पर सोचते-सोचते ख्याल आया कि वे कहां और हम कहां! संयोग कि फिल्म देखने के बाद उसी शाम टीवी चैनल पर एक एंकर का दूसरे पत्रकार पर गुस्सा देखा। टाइम्स नॉउ का अरनब गोस्वामी प्रिंट पत्रकार वरदराजन पर यह कहते हुए बरस रहा था कि वह कौन होता है उसे पत्रकारिता बताने वाला। अब हिंदी के माईबाप पाठक, आप भले न जानें कि कौन अरनब है और कौन वरदराजन, पर ये दो भारत में पत्रकारिता के आज के प्रतिनिधि चेहरे हैं। ये देश में सार्वजनिक विमर्श की धुरी हंै तो पत्रकारिता की साख, उसके अर्थ, प्रामाणिकता, बौद्धिकता के स्तर के सभी पहलू इनसे जुड़े हैं! इन दो चेहरों में आप पत्रकारिता की दिमागी हालत बूझ सकते हंै!
इस पर आगे लिखूं, उससे पहले यह ध्यान में रखंे कि जैसे लोग, जैसा समाज और जैसा देश है वैसे ही देश के पत्रकार और पत्रकारिता होगी। मेरा मानना है 1947 में अंग्रेजों ने जब भारत छोड़ा,तब जैसे चेहरे थे वैसे आज नहीं हंै तो यह बात सभी क्षेत्रों मे लागू होती है। तब नेहरू, लोहिया थे आज मोदी और केजरीवाल हैं। तब पत्रकारिता में फ्रेंक मोरेस, दुर्गादास, शामलाल थे तो आज अरनब या वरदराजन हैं। ये देशकाल, युगधर्म अनुसार है। इसलिए मैं जो लिख रहा हूं उससे यह अर्थ न निकालें कि पत्रकारिता सचमुच अब प्रस्टीयूट है। जो प्रस्टीट्यूट बोलते हंै वे भी प्रस्टीट्यूट हैं। मतलब मूल संकट कुएं में भांग का है।
नंबर दो बात यह कि भारत में हम इस आम खामोख्याली में रहते हैं कि गुजरा वक्त अच्छा था। अंग्रेजों का वक्त अच्छा था। उससे पहले राजाओं के वक्त का तो कहना ही क्या। या नेहरू क्या कमाल के थे और नरेंद्र मोदी क्या हैं! पहले के संपादक कैसे थे और आज कैसे हैं! इस सोच खांचे में भी पत्रकारिता की दशा-दिशा के मेरे इस आकलन को न तौलें। मैं यदि तब और अब का फर्क देखता हूं तो इसकी वजह वैश्विक पैमाना भी है।
मेरी तराजू पश्चिमी देश और अपना जनसत्ता का वक्त है। मतलब पश्चिमी मीडिया में जैसा पत्रकारिय परिवेश है, उसी संदर्भ बिंदु में यह विचार, विश्लेषण है। इससे भी अधिक मतलब वाली बात 1975 से ले कर 1995 तक दिल्ली के पत्रकारी अनुभव का अपना पैमाना है।
इस सबकी समग्रता में पहला निष्कर्ष यह है कि 1947 में आजाद भारत के जन्म के साथ आबोहवा से पत्रकारिता को जो घुट्टी मिली, उसने भारत के मीडिया को पोलियोग्रस्त बनाया। जिन कंधों पर आजादी के बाद पत्रकारिता, मीडिया का दारोमदार था उन्होंने उसे स्वस्थ बनाने की खुराक नहीं दी। उलटे मीडिया को अपंग बनाने की खुराक दी।
यह गंभीर बात है। ऐसा दो कारणों से हुआ। एक तो मीडिया में, पत्रकारों में स्वतंत्रता-आजादी की आग का भभका नहीं हुआ। हालांकि देश आजाद हुआ था और उसके साथ पत्रकारों को अपने-आप सभी बंधनों, चिंताओं, खौफ-डर-गुलामी की आबोहवा से मुक्त होना था। मगर उलटा हुआ उसकी जगह अनचाहे, अनजाने में दिमाग कुंद बनाने, स्वतंत्रचेता न रहने देने की वैचारिक बेड़ियां बनीं।
एक मायने में अंग्रेजों की छोड़ी पेशेवर पत्रकारिता की तटस्थता, बेबाकी का भी यह पलटा मारना था। जिन सुधीजनों, पत्रकारों ने 1947 के वक्त में रहे सक्रिय पत्रकारों को पढ़ा है वे जानते हैं कि उस वक्त पत्रकार निष्पक्ष, बेबाक थे। फ्रेंक मोरेस, दुर्गादास, एडी गोरवाला, शामलाल जो लिखते थे, अंग्रेजों के स्वामित्व वाले स्टेट्समैन, टाइम्स आफ इंडिया, पायनियर में जो रिपोर्टिंग होती थी वह पेशेगत ईमानदारी, तटस्थता, बेबाकी लिए हुए थी। उस पीढ़ी के पत्रकार-संपादक न तो नेहरू के भांड थे और न वे अपनी बात कहने में हिचकते थे। अंग्रेजी के ये पत्रकार-संपादक पेशेवर और प्रखर थे।
15 अगस्त 1947 के बाद माहौल बदलने लगा। दो वजह थी। एक तो आजादी की वजह से आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू से पत्रकार-संपादकों को अभिभूत किया हुआ था। नतीजतन सभी ने देवदास गांधी की हिंदुस्तान टाइम्स के संपादन की यह शैली अपनाई कि– एज मिस्टर नेहरू राइटली सेड.. मतलब मीडिया के लिए नेहरू आप्तपुरुष थे। उन्होंने जो कह दिया, जो भाषण दे दिया उसके आगे जा कर संपादक, पत्रकार फुल स्टॉप लगा दें तो वह पत्रकारिता हुई।
फिर नेहरू ने देश का जैसे सरकारीकरण किया वैसे मीडिया का भी सरकारीकरण शुरू हुआ। अंग्रेजों ने अखबार की सालाना जानकारी देने का एक एक्ट बनाया था। नेहरू के राज में इस एक्ट में न्यूजप्रिंट कंट्रोल का काम शामिल हुआ तो विज्ञापन के लिए भी सरकारी तानाबाना बना। भारत को बनाने का नेहरू का मॉडल सोवियत संघ की तरह संस्थाओं को बनाने और उनके लिए साहित्य, कला, संस्कृति, शिक्षा का सरकारीकरण था। नेहरू ने जैसे सरकार चलाई, अपना कैबिनेट चलाया वैसे ही सार्वजनिक विमर्श भी करवाया।
इसी का बाईप्रॉडक्ट नेहरू का आईडिया ऑफ इंडिया था। उन दिनों यों भी वैश्विक पैमाने पर समाजवाद, साम्यवाद का क्रेज था। कम्युनिस्ट, समाजवादी होना फैशन था। नेहरू खुद समाजवादी, उनकी सत्ता का आभामंडल समाजवादी तो वैचारिक विमर्श व मीडिया में भी समाजवादी सैलाब हुआ। कह सकते हंै आजाद भारत में पत्रकारिता के विकास में साम्यवाद, समाजवाद व नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया की ऐसी घुट्टी थी जिसमें महिमामंडन के अलावा कुछ था नहीं। मालिक अंग्रेज या मारवाड़ी लेकिन संपादक और पत्रकार समाजवाद के नए दौर से अभिभूत। अब पत्रकार यदि अभिभूत होगा तो वह तटस्थ नहीं हो सकता और न ही हिम्मती और बेबाक। तभी वीएस नईपाल जब पहली बार भारत आए तो दिल्ली का माहौल देख कहा था सारा माहौल दरबारी है। हर कोई अपने को नेहरू के निकट दिखना चाहता है। सभी अखबार एक राग अलाप रहे हंै।
यह तथ्य है, हकीकत है कि कर्जन से नेहरू की शपथ तक के घटनाक्रम में हुई पत्रकारिता में बेबाकी, अंदर की बातें पढ़ने को मिलेंगी लेकिन उसके बाद नेहरू की महिमा का बखान ही बखान है। सो अंग्रेजों के वक्त दुर्गादास, फ्रेंक मोरेस जैसे पत्रकार अपने हाथों अपनी बेबाकी व तटस्थता (चाहे तो उसे दक्षिणपंथ मानें) के बीज आगे की पीढ़ी को इसलिए ट्रांसफर नहीं कर पाए क्योंकि नेहरू के मायावी समाजवाद के आगे सब मंत्रमुग्ध थे। अखबारों में समाजवादी विचारों के संपादक, पत्रकार भरे गए। ये नेहरू के वफादार थे। इन्हंे उनके आगे सच्चे समाजवादी सेनानी डा राममनोहर लोहिया भी पसंद नहीं थे। लोहिया को अखबार में जगह इसलिए नहीं मिलती थी क्योंकि वे नेहरू के विरोधी थे।
हिंदी संपादक-पत्रकारों की और विकट स्थिति थी। आजादी से पहले हिंदी अखबार आजादी की लड़ाई के सेनानी थे। ये जनता की आवाज थे। आजादी मिली तो ये बिना मकसद के थे। मतलब नेहरू और कांग्रेस जब सत्ता में आ गई तो अब आगे क्या काम? अखबार संपादक-मालिक तब कांग्रेस के नेता या कार्यकर्ता थे।
जाहिर है आजाद भारत में पत्रकारिता सत्ता द्वारा, सत्ता के खातिर सत्ता पर आश्रित थी। मीडिया के मालिक हों या पत्रकार सब अपंग थे। पोलियोग्रस्त थे। सरकार पर आश्रित थे। नेहरू व सत्ता के आभामंडल की लकदक की छाया में ये जीने वाले थे।
बावजूद इसके पत्रकार-संपादक तब पत्रकारिता के इस बुनियादी सिंद्धांत को मानते थे कि खबर का मतलब तथ्य है। खबर में न विचार घुसेड़ा जाता था और न विचार में यह फतवा होता था कि फलां हत्यारा है या फलां गुंडा! संपादक गंभीर किस्म के पढ़ने-लिखने वाले होते थे और रिपोर्टर बिना मिर्च-मसाले याकि सनसनी के सपाट खबर देते थे।
इसमें पहला टर्न आया 1969 की कांग्रेस फूट के साथ !
बुजदिल,मीडिया का क्रोनी विस्तार!
गड़बड़ है। आजाद भारत की 68 साला पत्रकारिकता को तीन-चार लेख में बांधना असंभव है। कई बातें छूटनी हंै। भाव, निष्कर्ष के साथ तथ्य, प्रमाण, घटनाक्रम, आंकड़ों को दे सकना संभव ही नहीं है। इसलिए पाठकों से आग्रह है कि छोटे कैनवस की मजूबरी समझें। लिखे को छायावादी रूप में लें। तस्वीर को समग्रता में देख कर ही विचार करें।
आजाद भारत में सार्वजनिक विमर्श का पहला मोड़ अक्टूबर 1962 का था। चीन की ठुकाई से नेहरू का आभामंडल कलंकित हुआ तो भारत के संपादक समझ ही नहीं पाए कि वे कैसे सोए हुए थे? नेहरू, उनके रक्षामंत्री कृष्ण मेनन और सरकार ने जो कहा उसी पर क्यों नेरेटिव रखा? उन्होंने खबर, सच्चाई क्यों नहीं बताई? पर सच्चाई बताना संभव नहीं था। इसलिए कि मीडिया खुद नेहरू के आईडिया में बना चौथा खंभा था। नेहरू की प्रयोगशाला का शिशु था। तभी आजाद भारत के इतिहास में मीडिया की बेखबरी का पहला कलंक 1962 का युद्ध था। अपने को ऐसा कभी उल्लेख नहीं मिला कि फलां अखबार ने, संपादक ने तब नेहरू या सरकार के लल्लूपने का बेबाकी से विश्लेषण किया हो। हां, लोकसभा में महावीर त्यागी ने जब नेहरू की निज धज्जियां उड़ाई तो उसे अगले दिन अखबारों ने जरूर प्रमुखता, प्रखरता से पेश किया। पर कुल मिलाकर चीन के आगे भारत जैसा बुजदिल, बिना तैयारी के प्रमाणित हुआ वैसे ही अखबार, पत्रकार भी बुजदिल, बिना तैयारी के थे। नेहरू, मेनन के आभामंडल के आगे टीकाकार शामलाल, इंदर मल्होत्रा नरम कलम के भद्र पत्रकार थे। भारत के अपंग, पोलियोग्रस्त मीडिया को अपनी दुर्दशा पर रोना भी नहीं आया। हार को जल्द भुला सोचना शुरू किया कि लकवाग्रस्त नेहरू के बाद कौन?
न गुस्सा, न रक्षा मंत्रालय की खोजबीन करके हार के कारणों की रिपोर्टिंग और न ही कोई नेतृत्व-व्यवस्था की निर्मम समीक्षा या हार का सच बताने का माद्दा। पत्रकारिता उसी ढर्रे में चलती रही जिसमें नेहरू ने ढाला था। लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के सत्ता ट्रांसफर के क्रम के बीच बहुत घटनाएं हुई। असंतोष, जन आक्रोश का अराजक दौर भी आया मगर पत्रकारिता नेहरू के आईडिया आफ इंडिया का चौथा खंभा बनी रही। 1965 के भारत-पाक युद्ध में सरकारी रेडियो व सरकारी प्रचार बाकी मीडिया के लिए सोर्स थे। सरकार और सत्ता को देखते हुए, उसकी प्रतिछाया में बीफ्र को फॉलो करना पत्रकारिता थी। राजनीति में उस वक्त नेहरू की असफलता से स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और संसोपा का कुछ हल्ला बना था लेकिन मीडिया ने इन्हें इसलिए नहीं अपनाया क्योंकि पत्रकार-संपादक की जमात में वे वामपंथी भरे हुए थे जो नेहरू के आईडिया आफ इंडिया के तमाम सरकारी उपकरणों से पोषित थे। इन उपकरणों में सोवियत संघ, पूर्वी योरोपीय देशों की यात्राएं, पुरस्कार, वजीफे, मेले-उत्सव और नौकरियों के दस बहाने हुआ करते थे। कम्युनिस्टों में न केवल पत्रकार बनाने, बढ़ाने की ताकत थी बल्कि अंग्रेजी, हिंदी के अपने अखबार, पत्रिकाएं निकालने की ताकत भी थी। नेहरू के आईडिया आफ इंडिया, सोवियत साम्राज्य और देशी वामपंथियों का नाता दूध-शक्कर का था। दक्षिणपंथी स्वतंत्र पार्टी या देशी समाजवादी लोहिया के लोग या हिंदूवादी जनसंघ में तो पत्रकार-संपादक झांकने की हिम्मत भी इस डर के चलते नहीं करते थे कि बिरादरी में वे अछूत हो जाएंगे।
1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस तोड़ी। पुराने बुर्जुग कांग्रेसियों को सिंडिकेट करार दे सत्ता से बेदखल किया। नेहरू के समाजवादी खाके पर गरीबी हटाओ का नया रंग पुता। वह मोड कम्युनिस्टों का एक तरह से इंदिरागांधी का टेकआवर था। उनके वामपंथी मैनेजरों ने नए जोश में इंदिरा इज इंडिया का नया दौर प्रारंभ किया। इसका सहज पहला परिणाम यह हुआ कि भारत की पोलियोग्रस्त पत्रकारिता सत्ता के खूंटे पर जा बंधी। इंदिरा गांधी और उनकी नई कांग्रेस ने सिंडिकेट और विरोधियों से लड़ाई में मीडिया का भरपूर उपयोग किया। दिल्ली में कुछ संपादक, ब्यूरो चीफ इंदिरा गांधी की राजनीति , सूचना प्रबंधन के जासूस थे तो कुछ खुफिया एजेंसी आईबी के सोर्स भी। हां, भारत की पत्रकारिता में यह सब हुआ है। याददास्त छोटी होने और इतिहास से बेखबर रहने के हम भारतीयों के स्वभाव में 30-40 साल पुरानी हकीकत को भी हम विस्मृत कर देते हैं। हकीकत है कि इंदिरा दरबार के यशपाल कपूर, फोतेदार, आरके धवन ने ही अकेले इतना, ऐसे मीडिया का इस्तेमाल किया कि यदि धवन और फोतेदार इस एंगल पर किताब लिखें तो पत्रकारिता का सच्चा चेहरा भंडाफोड़ से कम नहीं होगा।
कुल मिला कर नेहरू के वक्त भारत में पत्रकारिता सम्मोहित थी, भक्त थी, मुरीद थी। वह नेहरू के प्रयोगों का एक हिस्सा, उसका खंभा थी। उनके आईडिया का एक आईडिया थी। शिशु मीडिया का वह लालन-पालन-पोषण था। सत्ता के पालने का तब अपनत्व था।
इंदिरा गांधी के वक्त मीडिया जवान हुआ और वह फुदकते हुए सत्ता का औजार बना। इस औजार से इंदिरा गांधी ने सिंडिकेट को निपटाया, विरोधियों को मारा। फुदकता मीडिया सत्ता को सलामी देने लगा। जो सलामी में खड़े नहीं हुए उन संपादकों को हटवाया गया। इंदिरा ने संपादक हटवाए। बेटे संजय गांधी ने संपादक रखवाए। कलम नरम थी तो भाव अहसान चुकाने का था।
इससे एक और परिवर्तन आया। मीडिया का उपयोग हुआ तो संपादक-पत्रकारों को अपना महत्व समझ आया। सत्ता से निकटता ने स्वार्थ बनवाए तो यह बोध भी बनवाया कि वे सिंडिकेट को निपटा कर यदि इंदिरा गांधी का करिश्मा बनवा सकते हैं तो उनका मतलब ताकत है। अपना मानना है कि टाइम्स आफ इंडिया में शामलाल के बाद जब गिरिलाल जैन संपादक बने तो उनसे भारत के मीडिया में ताकत व उपयोगिता का नया भाव बना। अंग्रेजी संपादकों का जो निस्पृह, नरम कलम का भाव था उसे गिरिलाल जैन ने बदला। इंदिरा गाधी की पक्षधरता में उन्होंने सत्ता के लिए राय बनवाने, उसके कामों की व्याख्या, तर्कता गढ़ने का ऐसा सिलसिला शुरू किया जिससे मीडिया का रोल बढ़ा। सत्ता और विपक्ष दोनों को मीडिया की अहमियत का नया बोध हुआ।
पर इंदिरा गांधी का जितना करिश्मा बना, गरीबी हटाओ का जितना जादू बना उतना ही जल्दी जब वह उतरा तो राजनीति भी खदबदाई। जन असंतोष पैदा हुआ। छात्र आंदोलन, जेपी आंदोलन फूट पड़ा। उस दौर में सत्तागामी मीडिया के बीच रामनाथ गोयनका की फितरत और एस मुलंगवाकर के गांभीर्य ने इंडियन एक्सप्रेस की कलम को मशाल बनाया। उसकी रोशनी विपक्ष का उजाला थी तो इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक की बरबादी। राजीव गांधी मानते थे कि विपक्ष कहां है, बस एक अखबार है!
इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो पूरे भारत में सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस, स्टेट्समैन थे जिन्होंने सेंसरशिप के खिलाफ अखबार की संपादकीय जगह छोड़ विरोध दर्ज कराया। हिंदी में नई दुनिया ने वैसा किया। ये तीन और गिरफ्तार हुए कुछ पत्रकारों का विरोध तालाब में पत्थर फेंके जाने की हलचल से अधिक नहीं था। ध्यान रहे विरोध के ये सुर दक्षिणपंथी थे, जनवादी याकि नेहरू के आईडिया आफ इंडिया के चौथे खंभे की पत्रकारिता ने तो उस तानाशाही को सच्चा लोकतंत्र बताया था! तब तानाशाही के आगे मीडिया रेंगा था! वह भारत के जनवादी, सेकुलर मीडिया की नंगई का अविस्मरणीय मुकाम था।
इमरजेंसी हटी। महाबली इंदिरा गांधी हारी, केंद्र में सत्ता बदली तो मानो जन ताकत का ज्वालामुखी फूटा हो। जनता का बल पा कर पोलियोग्रस्त मीडिया उठ खड़ा हुआ। वह मीडिया के बदलने का दूसरा मोड था। मीडिया स्वतंत्र-स्वच्छंद हुआ। जनता पार्टी के नेताओं की स्वच्छंदता में सरकार, राजनीति में जैसी जो हिम्मत आई, टूट-फूट हुई तो नई पत्रिकाओं, नए-पुराने अखबारों, क्षेत्रीय अखबारों ने आजादी और नवसाक्षर पाठकों, राजनैतिक एक्टिविस्टों का बल पाया। उलटा असर यह हुआ कि पत्रकार एक्टिविस्ट होने लगे। पत्रकारों-संपादकों को राजनीति का चस्का लगा। फिर तो मोरारजी देसाई की सरकार के पतन से ले कर इंदिरा गांधी की वापसी, पंजाब आपरेशन, राजीव गांधी के राज के पूरे सिलसिले में मीडिया या तो राजनीति का माध्यम था या राजनीति मीडिया का औजार। पर यह सब था नेहरू के बनाए मूल आईडिया आफ इंडिया के गुलाम चौथे खंभे के दायरे में! शारदाप्रसाद, मणिशंकर अय्यर, सुमन दुबे से ले कर एचके दुआ तक के प्रधानमंत्री दफ्तर के मीडिया प्रबंधक कुल मिला कर यह अनुभूति कराते रहे कि सत्ता है तो मीडिया है। सत्ता और मीडिया का साझा परस्पर एक दूजे के लिए है। भारत की पत्रकारिता में कभी यह भाव या जिद्द आई ही नहीं कि मीडिया अलग है। अकेला है। उसकी निज हैसियत है वही भूमिका है जैसी अमेरिका या ब्रिटेन में होती है। अपवाद में सिर्फ और सिर्फ रामनाथ गोयनका और उनका इंडियन एक्सप्रेस था जिसमें अरुण शौऱी व जनसत्ता ने व्यवस्था, सत्ता की खबर लेने और देने के हठयोग में देश को यह अहसास कराए रखा कि ऐसी भी होती है पत्रकारिता!
उस दौर में सत्ता ने ही नए मीडिया याकि टीवी की पौध पैदा की। राजीव गांधी, गोपी अरोड़ा, मणिशंकर अय्यर के राज में आईडिया आफ इंडिया पोषक तंत्र ने नए मीडिया के बीज डाले। सरकारी दूरदर्शन ने प्रणय राय को, विनोद दुआ को, आज तक को पैदा किया। इन पर कृपा की और क्रोनी मीडिया के नए एंपायर खड़े हुए। इस पौध ने नरसिंहराव के उदारीकरण का लाभ ले क्रोनी मीडिया म़ॉडल के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया में छलांग मारी। वह दौर गुलाम, क्रोनी मीडिया के नए विजुअल ग्लैमर के उभार का था।
पत्रकारिताः सच का बलात्कार!
जहां से शुरू किया वहीं लौटा जाए। ‘स्पॉटलाइट’ फिल्म ने अच्छी-सच्ची पत्रकारिता का सच बताया तो अरनब गोस्वामी बनाम वरदराजन के किस्से ने भारत की झूठी पत्रकारिता का कोण उकेरा। गौरतलब है कि अरनब और वरदराजन दोनों की ब्रीड एक है। नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया व अंग्रेजीदां सेकुलर मीडिया ब्रिगेड की ब्रीड। अरनब गोस्वामी जहां प्रणय राय की स्कूल में राजदीप सरदेसाई, बरखादत्त के सहपाठी थे तो वरदरजन एन राम की चेन्नई सेकुलर स्कूल के क्रांतिकारी पत्रकार। पिछले 15 सालों में चेन्नई में एन राम के स्कूल, कोलकत्ता के एमजे अकबर स्कूल, दिल्ली में प्रणय राय- शेखर गुप्ता की पत्रकारिता स्कूल के पत्रकारों-संपादकों के दो साझा तत्व हैं। एक, क्रोनी मीडिया एंपायर की हित साधना तो दूसरा यह गुमान कि भारत उनसे चलता है। दिल्ली में ये जो अखबार में लिख देते हंै टीवी चैनलों पर जो कह देते हंै उसी में भारत सोचता है! जैसे दिल्ली की सत्ता और सिस्टम पूरा देश चलाता है वैसे ही दिल्ली के अंग्रेजीदां बौद्धिक, संपादक राष्ट्रीय बहस और बौद्धिकता की गंगोत्री हैं!
यह भाव पोलियोग्रस्त मीडिया की बाल अवस्था मंे भी था। आज यह मनोरोग का लेवल लिए हुए है तो इसलिए कि घरों में टीवी स्क्रीन है। उससे दृश्य याकि विजुअल का गहरा असर छूटता है। आप अखबार पढ़ंे या सामने चिल्लाते पागलों को सुनंे तो दिमाग किससे अधिक घनघनाएगा? स्क्रीन पर आग में अपने को जला कर आग को घर-घर पहुंचाने की फितरत या स्क्रीन पर अंधेरा करके घर-घर अंधेरा पैदा कर देने का मुगालता हकीकत में पत्रकारों की मनोरोगी नार्सिसस-ग्रंथि की मुखरता है।
इसका एक छोर प्रसार और टीआपी भी है। जैसा मैंने पहले लिखा था कि अखबारों की मोनोपोली, बड़ी पूंजी का जो खेल हुआ उसमें झूठ बोल कर या सांप्रदायिक आग लगवा कर अखबारों ने प्रदेश में अपनी मोनोपोली बनवाई। पंजाब के सिख ऊबाल में पंजाब केसरी या उत्तरप्रदेश में अयोध्या ऊबाल में जागरण के फैले प्रसार में दस तरह के झूठ काम आए। बावजूद इसके इतना कहना होगा कि प्रिंट मीडिया में सच के साथ बलात्कार कम हुआ है जबकि टीवी चैनलों ने सच के साथ बलात्कार का जितना लाइव शो किया है उसने दुनिया में भारत की पत्रकारिता को मखौल का विषय बनाया हुआ है। हां, लोग बताते हैं कि अमेरिका में भारत के कथित टीवी सुपरस्टार अरनब की मखौल के वीडियो यू ट्यूब पर बहुत हिट हैं!
अपने टीवी चैनलों पर यह जिद्द चौतरफा होती है कि कौन सच बताता है और कौन झूठ? सच या झूठ का यह खेल क्रोनी मीडिया का जनसपंर्क है तो अपने आईडिया को थोपना भी है। इससे उनके राजनैतिक हित सधते हैं जिन्होंने क्रोनी मीडिया एंपायर बनवाए। जिसका जो खूंटा वहां से वाहवाही मिलेगी कि वाह आज क्या खूब मर्दानगी दिखाई। तुम हो असली शेर। कोई सोनिया गांधी, राहुल गांधी से वाहवाही पाता है तो कोई केजरीवाल से और कोई नरेंद्र मोदी, अमित शाह व अरुण जेटली से!
ओरिजनल ब्रीड एक है। इस ब्रीड में यदि कोई भगोड़ा बन भगवा बना है तो बाकी पूरी ब्रीड इस सदमे में है कि यह तो भारी विश्वासघात है। तभी इन दिनों कथित जनवादी, सेकलुर और भारत के आईडिया के अपने को सच्चे सेनानी मानने वाली अंग्रेजीदां सेकुलर बिग्रेड में यह बहस है कि मैं जो भेडि़या आने, अंधेरा छाने का सच बता रहा हूं वह असली है और जो भगोड़ा है वह पापी है, मक्कार है। पर पूरी ओरिजन ब्रीड आत्ममुग्धता, मनोरोग नार्सिसस-ग्रंथि में तरबतर है। सच बताने का इनका शोर भयावह है।
सच का यह सिलसिला 15 साल से चला हुआ है। गजब संयोग है कि 2016 का अभी फरवरी है और 2002 में भी तब फरवरी थी। अभी टीवी चैनलों पर ‘जेएनयू का सच’ है तब ‘गुजरात का सच’ व ‘नरेंद्र मोदी का सच’ था। अपना मानना है 2002 का वर्ष भी भारत के मीडिया का मोड़ था। तभी से प्रारंभ हुआ सच से लाइव बलात्कार। टीवी चैनल गुजरात के दंगों को लाइव दिखा रहे थे और देश उन्हें झूठा मान रहा था। यह गहरी बात है। अंग्रेजीदां सेकुलर मीडिया की झंडाबरदार एनडीटीवी चैनल के टीवी कैमरे जहां घटनाओं पर, राजदीप सरदेसाई, बरखादत्त आदि के तड़के में फोकस कर रहे थे वही देश याकि देशज हिंदू उस लाइव से परे की हकीकत बूझ रहा था। टीवी कुछ दिखा रहे थे और हिंदू अलग बूझ रहा था।
पर इसमें हिंदू की ही न सोचें। 2002 के गुजरात दंगों की हकीकत है कि गुजरात का गुजराती मीडिया अलग रिपोर्टिंग कर रहा था, उसकी दिखाई जमीनी सच्चाई अलग थी और दिल्ली के अंग्रेजीदां मीडिया, प्रणय राय, शेखर गुप्ता,एनराम, एमजे अकबर खुद और उनकी पैदा की गई राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, अरनब गोस्वामी की ब्रीड नरेंद्र मोदी का जो सच बता रही थी उससे जुदा गुजराती मीडिया का सच था। बाद में दिल्ली के इन अंग्रेजीदां सेकुलर मीडिया के तुर्रमखांओं ने गुजराती मीडिया की जांच भी कराई। रिपोर्ट बनवा कर थीसिस दी कि वे कितनी गलत रिपोर्टिंग कर रहे थे!
मगर वक्त ने, अदालत ने, जनता ने गुजरात के मीडिया को सही ठहराया। अंग्रेजी सेकुलर ब्रिगेड का यह हल्ला तमाम दांवपेंचों, केंद्र सरकार के महाबल के बावजूद प्रमाणित नहीं हुआ कि काली, सफेद दाढ़ी के पीछे खून है।
जरा सोचें, याद करें मोदी की सफेद, अमित शाह की काली दाढ़ी में लाल खून प्रमाणित करने के लिए बारह साल लगातार किस शिद्दत से दिल्ली की अंग्रेजीदां सेकुलर बिग्रेड नरेंद्र मोदी का सच बताती रही लेकिन लोगों ने उसे नहीं माना। अपनी जिद्द में ही फिर इस मीडिया ने हर संभव यह भी कोशिश की जिससे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री न बन पाएं।
क्या मैं झूठ लिख रहा हूं? कोई चाहे मुझे झूठा मान सकता है वह अपने सच में मुझे तोल सकता है। पर ‘मैं झूठ और वह सच’ की बहस यदि भारतीय मीडिया में है तो यह भी हकीकत में सच का बलात्कार है। सच को बहस की जरूरत नहीं होती। सच तो सहज सर्वमान्य होता है। ऐसा अमेरिका में देखने को मिलता है, ब्रिटेन, फ्रांस में मिलता है। सच के न दो रूप होते हैं और न शेड ग्रे होता है। अमेरिका में 9/11 की घटना का एक ही सच माना गया। वैसी बहस नहीं जैसी गोधरा या दंगों को ले कर हुई। मतलब गोधरा में हिंदुओं से भरी ट्रेन को भी हिंदुओं ने जलाया व दंगे भी हिंदुओं ने किए। याकि न्यूयार्क के टॉवर गिराने की सीआईए की साजिश थी और बुश की दाढ़ी में खून है। मुसलमान शायद ऐसा सोचते हों पर उनका सोचना विश्व का सच नहीं है। विश्व का सच वही है जो सहज सच है।
सन 2002 से फरवरी 2015 के मध्य का भारत सत्य यह है कि झूठे मीडिया, झूठे विमर्श में हम भारतीय सांस ले रहे हंै। राजनीति, समाज के झूठ का मसला अलग है। फिलहाल पत्रकारिता मुद्दा है। उसमें दिल्ली की आईडिया ऑफ इंडिया की अंग्रेजीदां सेकुलर ब्रिगेड ने जितना झूठ परोसा है, जितनी झूठी बहस कराई है और अपने धंधे, अपने राजनैतिक गॉडफादर की जैसी हितसाधना की है उसका जितना ब्योरा दिया जाए वह कम होगा। इस मीडिया की बदौलत ‘भगवा आतंकवाद’ बना। मोदी मौत के सौदागर हुए। झूठ का वह एक एक्स्ट्रीम तो दूसरा एक्स्ट्रीम मीडिया के ही एक हिस्से से केजरीवाल, नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग भी हुई। कांग्रेस हो या भाजपा इसके भीतर नेताओं को चमकाने, उनके विरोधियों को परास्त करने के भी झूठे-सच्चे खेल अंग्रेजीदां सेकुलर मीडिया ने ही खेले हैं। गौर करें, अरुण जेटली की राजनीति का आधार क्या है? न वोटर, न कार्यकर्ता, न संघ और न विचारधारा। उनकी जड़ंे यदि हैं, उनकी राजनीति, राजनैतिक लड़ाईयां, प्रोफाइल का कोई आधार है तो सिर्फ और सिर्फ दिल्ली के अंग्रेजीदां मीडिया उर्फ राजदीप, बरखादत्त याकि प्रणय-शेखर-शोभना की पत्रकारिता स्कूल है। इस स्कूल ने 2002 से ले कर आज तक नरेंद्र मोदी को हर तरह से धोया लेकिन सेकुलर मीडिया ने जेटली का खेल ऐसा खेला कि मोदी के राज में भी इनकी तूताड़ी, निर्भयता यह साहस लिए हुए है कि अंधेरा छा रहा है। भेडि़ए घर दरवाजे पर आ गए हैं। ये भेडि़ए ही कन्हैया, उमर, रोहित याकि जेएनयू-दादरी का सच है!
मक्कारी का यह खेल लाजवाब है। सच बताने की छीनाझपटी अभूतपूर्व है। पर इनका साख का संकट भी बना है। इस संकट की बानगी देखनी हो तो सोशल मीडिया पर इन अंग्रेजीदां चेहरों को लेकर चली सच्ची झूठी बातें जानें। मैं सोशल मीडिया को फॉलो नहीं करता हूं पर जो लोग बताते हंै वह अपूर्व गंदगी, नीचता और झूठ है। पर नीचता, झूठ की नौबत तो मीडिया ही ले कर आया है। यदि राजदीप, बरखादत्त, शेखर गुप्ता, वरदराजन एक सच दिखा रहे हंै और अरनब गोस्वामी दूसरा व इनके हिंदी संस्करण रविश कुमार बनाम सुधीर चौधरी भी टीवी स्क्रीन पर एक ही सच के दो रूप बता रहे हंै तो कुल मिला कर भाव तो यही निकलेगा कि भारत के पत्रकार और पत्रकारिता सच के साथ बलात्कार कर रहे हैं! मसला झूठ का नहीं है। सच का हवाला देते हुए उसके साथ बलात्कार का है! होड़ यह है कि कौन कितनी बेशर्मी से बलात्कार करता है!
सचमुच पत्रकारिता के आईने में इन दिनों सत्य नहीं दिखता बल्कि उसका लाइव बलात्कार दिखता है। अभी हरियाणा में भयावह हिंसा हुई। अपने को मिली जमीनी रिपोर्ट में यह वाक्य सुनने को मिला कि रोहतक में जो हिंसा व लूटपाट हुई वह 1947 के विभाजन के अनुभव जैसे रोंगटे वाली थी। संभव है बढ़ चढ़ कर बात हो मगर टीवी चैनलों ने उधर फोकस नहीं मोड़ा। वहां अंधेरा छाते नहीं देखा लेकिन कन्हैया से अंधेरा छा गया और भेडि़या दरवाजे पर आ गया!
मैं फिर कह रहा हूं कि झूठ दोनों तरफ है। जो सच है वह 9 फरवरी को जेएनयू में लगे भारत विरोधी नारे हंै। उस मूल सच के साथ टीवी चैनलों, एंकरों ने अपने आका व ब्रीड याकि लैब्राडोर, बुलडॉग, डोबरमैन, जर्मन शेफर्ड, लोंबार्ड व पॉमेरियम,चिहुआ, सेंट बर्नाड के हाव भाव अनुसार जैसी थीसिस दी वह भारतीय पत्रकारिता का बेहद शर्मनाक मुकाम है। यह सिलसिला सतत अनवरत है और यह इसलिए भी गंभीर है क्योंकि इससे कुल मिला कर देश का पूरा सार्वजनिक विमर्श ही झूठा बन गया है। सोशल मीडिया देखें, टीवी चैनल देखें या प्रिंट मीडिया में अंग्रेजीदांओं की टिप्पणियां और उनके अनुगामी हिंदीजनों का विमर्श सबका लब्बोलुआब खरा सत्य, तर्क, तथ्य नहीं बल्कि यह है कि उसका फलां एजेंडा है। फलां क्रांतिवीर है और फलां दलाल। फलां झूठा है और फलां सच्चा। टीवी स्क्रीन के आगे दर्शक चेहरा देखते ही जान लेते हंै कि खबर कैसे परोसी जाएगी, झूठ के कैसे तड़के लगेंगे!
क्या यह सब इसलिए नहीं कि मीडिया और पत्रकार सब इस मनोरोग नार्सिसस-ग्रंथि के अहम में जी रहे हंै कि उनका सत्य, सत्य है और दूसरे का झूठा!
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Senior Journalist Harishankar Vyas is chief of Naya India Group. Link to this story : http://www.nayaindia.com/hsvyas-opinion/wow-journalism-wow-spotlight-505837.html